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Showing posts from April, 2017

डोर

अपने और मेरे रिश्ते को कोई नाम तो दो ; हल्की - फुल्की , कोमल , प्यारी , झीनी - झीनी ; हम दोनो के बीच छोटी सी एक डोर है ; टूट ना जाये छूट ना जाये पल पल भय है ; इस और इस्पाती है पर ढीली सी उस ओर है ; अपनी ओर से मेरी डोर को थाम तो दो ; अपने और मेरे रिश्ते को कोई नाम तो दो ;

आओ बसों में धक्के खायें..

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यूँ ही काफ़ी गम हैं जिन्दगी में, चलो इन्हें कुछ और बढायें, आओ बसों में धक्के खायें.. कड़वा तो था ही ये करेला, जीभों को थोड़ा और चिढ़ा ले, क्यूँ ना इसमें नीम का छोंक लगायें, आओ बसों में धक्के खायें.. चिलचिलाती दोपहर को थोड़ा और उबालें, थर्मामीटर के पारे से रेस लगालें, सूरज जब सर पर आ जायें, हाँ बिलकुल उसी वक्त.. आओ बसों में धक्के खायें.. सोचो चलती है ये फ़ोकट के पानी से, कंडक्टर से रियायत के लिए जंग लड़ें, कभी पड़ें भारी तो कभी मुँह की खायें, आओ बसों में धक्के खायें.. तरबतर थी पसीनें से पड़ोसी की कमीज भी, अपनी भी तो हालत यही थी, क्या "मेरी" क्या "उसकी" आओ इसे "हमारी" खुश्बू बनायें, आओ बसों में धक्के खायें.. झोंकों की हसरत मत कर मेरे दोस्त, आदत डाल इस हवाई मुफलिसी की, सांसें चल रहीं हैं, बस इतने से खुश हो जायें, आओ बसों में धक्के खायें.. चने औ मूंगफली वालों से दोस्ती कर लें, चालक, परिचालक तक के भी नाम पता कर, चलों इस दुनिया में पहचान बढायें, आओ बसों में धक्के खायें.. कितने गड्ढे? कितने ब्रेकर? कितने स्टॉप हैं रास्त...

तू..

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तेरा साथ मजबूर करता है मुझे लकीरें लांघ जाने को, कुछ पल ऐसे बिताने को, गाठों में बाँध के रख सकूँ जिन्हें, जिन्दगी की शाम तक, अनन्त छोर हो जिसका उस आसमान तक, जेबों में भरना चाहता हूँ, कुछ ऐसे पल, जिन्हें अपने जीवन भर की कमाई मान लूँ, तो मन में इतरा जाऊं, हर शख्स, हर खजाने की गहराई को  अपनी जेबों से उथला पाऊं, इस लोगों के मेले से रुखसत होऊं, आँखें तो बंद हो, पर मुट्ठियाँ भी भिचीं हो, मन के हर दरार तेरी यादों से सिचीं हो, मेरे पल मेरे हाथों से रिस ना जाएँ, जन्नत में जाके गुरूर से कह सकूँ, कि नहीं चाहिये तेरे दर कि चहचाहटें, ना चाहिए तेरे घर का नूर, मैं खुश हूँ अपनी उन यादों के बीच, जिन्हें धरती से लाया हूँ खींच....

Viral Sach

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दर्द हुआ बेहाल, पूछन वाला मिला ना कोई, पीड़ा भी तब तक कंगली है, जब जमके वायरल न होई...