यूँ ही काफ़ी गम हैं जिन्दगी में, चलो इन्हें कुछ और बढायें, आओ बसों में धक्के खायें.. कड़वा तो था ही ये करेला, जीभों को थोड़ा और चिढ़ा ले, क्यूँ ना इसमें नीम का छोंक लगायें, आओ बसों में धक्के खायें.. चिलचिलाती दोपहर को थोड़ा और उबालें, थर्मामीटर के पारे से रेस लगालें, सूरज जब सर पर आ जायें, हाँ बिलकुल उसी वक्त.. आओ बसों में धक्के खायें.. सोचो चलती है ये फ़ोकट के पानी से, कंडक्टर से रियायत के लिए जंग लड़ें, कभी पड़ें भारी तो कभी मुँह की खायें, आओ बसों में धक्के खायें.. तरबतर थी पसीनें से पड़ोसी की कमीज भी, अपनी भी तो हालत यही थी, क्या "मेरी" क्या "उसकी" आओ इसे "हमारी" खुश्बू बनायें, आओ बसों में धक्के खायें.. झोंकों की हसरत मत कर मेरे दोस्त, आदत डाल इस हवाई मुफलिसी की, सांसें चल रहीं हैं, बस इतने से खुश हो जायें, आओ बसों में धक्के खायें.. चने औ मूंगफली वालों से दोस्ती कर लें, चालक, परिचालक तक के भी नाम पता कर, चलों इस दुनिया में पहचान बढायें, आओ बसों में धक्के खायें.. कितने गड्ढे? कितने ब्रेकर? कितने स्टॉप हैं रास्त...